रण ऑफ कच्छ परिचय
रण ऑफ कच्छ: सोचो एक ऐसी जगह की, जहां दूर-दूर तक सिर्फ नमक और धूल का समंदर हो। न पानी, न पेड़, न कोई जिंदगी की निशानी। फिर भी, उस सुनसान रेगिस्तान में 18 मार्च 1965 को गोलियों की आवाज गूंजी। “एक तरफ था नंगा रेगिस्तान, दूसरी तरफ थी गोलियों की बारिश“, ये जगह थी गुजरात का रण ऑफ कच्छ, और ये दिन था जब भारत और पाकिस्तान के बीच एक छोटी-सी झड़प ने आने वाले बड़े युद्ध का संकेत दे दिया। ये कहानी है उस दिन की, जब एक बंजर जमीन पर दो देशों की फौजें आमने-सामने आईं, और इतिहास में एक नया पन्ना लिखा गया।
क्या हुआ था उस दिन?
1965 की शुरुआत में रण ऑफ कच्छ एक विवादित इलाका था। ये 9,000 वर्ग किलोमीटर का नमकीन रेगिस्तान भारत और पाकिस्तान की सीमा पर था, और दोनों देश इसे अपना मानते थे। जनवरी-फरवरी में पाकिस्तान ने इस इलाके में अपनी सेना की गश्त बढ़ा दी। उनके दावे थे कि ये जमीन उनकी है। भारत ने इसका जवाब दिया और अपनी चौकियां मजबूत करनी शुरू कीं। फिर आया 18 मार्च का वो दिन।
पाकिस्तान की एक बड़ी टुकड़ी ने रण में घुसपैठ की कोशिश की। भारत की छोटी-सी फौज, जिसमें ज्यादातर सीमा सुरक्षा बल (BSF) और कुछ सेना के जवान थे, ने उनका मुकाबला किया। गोलियां चलीं, धूल उड़ी, और उस सुनसान इलाके में जंग का पहला दृश्य तैयार हो गया। भारत के जवानों ने हिम्मत दिखाई और पाकिस्तानी फौज को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया। ये छोटी-सी जीत थी, लेकिन इसका असर बहुत बड़ा होने वाला था।

रण ऑफ कच्छ पृष्ठभूमि: क्यों भिड़े दो देश?
रण ऑफ कच्छ कोई ऐसी जगह नहीं थी जहां लोग रहते हों। ये एक ऐसा इलाका था जो गर्मियों में जलता और सर्दियों में ठंड से जम जाता। फिर भी, ये दोनों देशों के लिए अहम था – न सिर्फ जमीन के लिए, बल्कि सम्मान और सीमा की सुरक्षा के लिए। 1947 में बंटवारे के बाद से भारत और पाकिस्तान के बीच कई बार तनाव हो चुका था। 1965 में पाकिस्तान ने सोचा कि रण में घुसपैठ करके वो भारत को दबाव में ला सकता है। लेकिन उन्हें नहीं पता था कि भारत की छोटी-सी टुकड़ी भी पीछे हटने वाली नहीं थी।
इस झड़प से पहले दोनों देशों के बीच बातचीत चल रही थी, पर कोई हल नहीं निकला। पाकिस्तान ने इसे मौके के तौर पर देखा, लेकिन भारत ने इसे चुनौती माना। और फिर वो दिन आया – 18 मार्च – जब बातचीत की मेज से उठकर जंग के मैदान में कदम रखा गया।
उस दिन की जंग: हकीकत और चुनौतियां
रण ऑफ कच्छ में लड़ाई आसान नहीं थी। वहां पानी की कमी थी, रास्ते मुश्किल थे, और मौसम भी दुश्मन जैसा था। भारतीय जवानों के पास सीमित हथियार और संसाधन थे, फिर भी उन्होंने हौसला नहीं छोड़ा। दूसरी तरफ, पाकिस्तान की फौज संख्या में ज्यादा थी और उनके पास बेहतर तैयारी थी। लेकिन रण का इलाका ऐसा था कि बड़े हमले करना मुश्किल था।
एक रिपोर्ट के मुताबिक, इस झड़प में दोनों तरफ से कुछ सैनिक हताहत हुए, पर कोई बड़ा नुकसान नहीं हुआ। भारत ने अपनी एक चौकी – चहर बेट – को बचाने में कामयाबी हासिल की। ये छोटी जीत थी, लेकिन इसने पाकिस्तान को साफ संदेश दिया कि भारत अपनी जमीन का एक इंच भी नहीं छोड़ेगा।
इसका असर: 1965 की जंग का ट्रेलर
18 मार्च की ये घटना कोई बड़ी लड़ाई नहीं थी, लेकिन इसने आने वाले तूफान का इशारा कर दिया। इसके बाद अप्रैल में भी रण में कुछ और झड़पें हुईं। फिर जून में ब्रिटेन की मध्यस्थता से एक सीजफायर हुआ। लेकिन ये शांति ज्यादा दिन नहीं टिकी।
अगस्त 1965 में पाकिस्तान ने ऑपरेशन जिब्राल्टर लॉन्च किया, और सितंबर में भारत-पाकिस्तान के बीच पूर्ण युद्ध छिड़ गया।
रण ऑफ कच्छ की छोटी-सी लड़ाई ने दोनों देशों के बीच तनाव को हवा दी। इसने ये भी दिखाया कि सीमा पर छोटी-सी चिंगारी भी बड़े जंगल को जला सकती है। संयुक्त राष्ट्र तक ये मामला गया, और 1968 में एक समझौता हुआ जिसमें रण का ज्यादातर हिस्सा भारत को मिला।

आज क्या है रण ऑफ कच्छ?
आज रण ऑफ कच्छ एक टूरिस्ट स्पॉट है। हर साल वहां रण उत्सव होता है, जहां लोग टेंट में रहते हैं, ऊंट की सवारी करते हैं, और नमक के सफेद समंदर को देखने आते हैं। लेकिन 60 साल पहले ये वही जगह थी जहां गोलियां चली थीं, जहां जवान अपनी जान पर खेलकर देश की रक्षा कर रहे थे। ये बदलाव बताता है कि वक्त के साथ चीजें बदलती हैं, पर इतिहास के वो पल हमें हमेशा कुछ सिखाते हैं।

आखिरी बात
18 मार्च 1965 का दिन हमें याद दिलाता है कि शांति कितनी कीमती है। एक छोटी-सी झड़प ने दो देशों को जंग के रास्ते पर धकेल दिया। आज जब हम रण ऑफ कच्छ की खूबसूरती देखते हैं, तो उन जवानों को भी याद करना चाहिए जिन्होंने उस सुनसान जमीन को अपनी बहादुरी से भर दिया। क्या आपको लगता है कि आज भी ऐसी छोटी-छोटी बातें बड़ी लड़ाई का कारण बन सकती हैं? इतिहास हमें सिखाती है, पर हम कब देखेंगे?…
ये लेख तथ्यों पर आधारित है और पूरी तरह से सत्यापित है। जानकारी के मुख्य स्रोत: ANI (Asian News International) और ऐतिहासिक अभिलेख, 18 मार्च 2025 तक। और पढे – क्लिक
