Chhattisgarh Court Case: छत्तीसगढ़ के रायपुर से एक ऐसा मामला सामने आया है, जो भारत की न्याय प्रणाली की धीमी गति पर गंभीर सवाल खड़े करता है। साल 1986 में ₹100 की रिश्वत लेने के आरोप में दर्ज एक केस का फैसला अब जाकर 2025 में आया है। 39 साल बाद रायपुर हाईकोर्ट ने जागेश्वर प्रसाद अवस्थी को बरी कर दिया। लेकिन इस लंबे इंतजार ने उनकी ज़िंदगी का बड़ा हिस्सा छीन लिया।
क्या है 39 साल पुराना मामला ?
जागेश्वर प्रसाद अवस्थी मध्य प्रदेश स्टेट ट्रांसपोर्ट विभाग में बिल सहायक के पद पर कार्यरत थे। उनके एक सहयोगी अशोक कुमार वर्मा ने लोकायुक्त से शिकायत की थी कि बिल पास करने के बदले उन्होंने ₹100 रिश्वत मांगी। एंटी करप्शन ब्यूरो ने कार्रवाई करते हुए उन्हें रंगे हाथ पकड़ लिया और 1986 में केस दर्ज हुआ।
इस मामले में रायपुर के एडिशनल सेशंस जज ने 18 साल बाद, 2004 में फैसला सुनाया। अदालत ने जागेश्वर प्रसाद को दोषी करार देते हुए एक साल की सजा सुनाई। जागेश्वर प्रसाद ने न्याय की उम्मीद में हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया। आखिरकार 21 साल बाद, 2025 में हाईकोर्ट ने उन्हें बाइज्जत बरी कर दिया।
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न्याय में देरी, इंसाफ से वंचित
आज जागेश्वर प्रसाद 83 साल के हो चुके हैं। बरी होने के बावजूद उन्होंने बिना पेंशन के 23 साल गुजारे। उनकी आधी ज़िंदगी अदालतों के चक्कर काटते, वकीलों की फीस चुकाते और पेशियों पर खर्च होती रही। यह कहना गलत नहीं होगा कि उन्होंने जेल से भी लंबी ‘सजा’ भुगती।
न्यायपालिका की स्थिति
यह मामला अकेला नहीं है। देश की अदालतों में ऐसे लाखों लोग हैं जो वर्षों से न्याय का इंतजार कर रहे हैं। नेशनल ज्यूडिशियल डाटा ग्रिड के मुताबिक भारत की अदालतों में 5.3 करोड़ से ज्यादा केस लंबित हैं। सुप्रीम कोर्ट के “स्टेट ऑफ जुडिशरी” नामक रिपोर्ट (नवंबर 2023) के अनुसार देशभर में 4200 कोर्टरूम की कमी है। जिला अदालतों में 74,524 पद खाली हैं, जबकि हाईकोर्ट्स में 20 से 50% तक पद रिक्त हैं।
यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट ने भी स्वीकार किया है कि न्यायपालिका स्टाफ और इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी से जूझ रही है। इसका सीधा असर आम नागरिकों पर पड़ता है, जिन्हें सालों तक न्याय का इंतजार करना पड़ता है।
सरकारी पहल और हकीकत
सरकार ने पिछले पाँच वर्षों में जुडिशियल इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए ₹4244 करोड़ का बजट आवंटित किया है, लेकिन जमीनी स्तर पर इसका खास असर दिखाई नहीं दे रहा। अदालतों में देरी के कारण लोग तय सजा से ज्यादा वक्त जेल में गुजार देते हैं। इससे “जस्टिस डिलेड इज जस्टिस डिनाइड” वाली कहावत और भी प्रासंगिक हो जाती है।
जागेश्वर प्रसाद का मामला हमारे न्याय तंत्र की खामियों की जीती-जागती तस्वीर है। भ्रष्टाचार के बड़े मामलों में आरोपी अक्सर विदेश भाग जाते हैं या राजनीतिक ताकत के चलते बच निकलते हैं। वहीं एक सामान्य कर्मचारी 39 साल तक न्याय की तलाश में भटकता रहा।
इस घटना से यह सवाल उठता है कि क्या हमारी न्यायपालिका आम नागरिक को समय पर न्याय दिलाने में सक्षम है? अगर बदलाव नहीं हुआ तो न्याय व्यवस्था पर भरोसा और कमजोर हो जाएगा।